देहरादून। उत्तराखंड की संस्कृति, परंपरा से जुड़ा पर्व फूलदेई आज से मनाया जा रहा है। गढ़वाल व कुमाऊं में विशेष रूप से मनाया जाने वाले इस पर्व पर सुबह छोटे बच्चों ने देहरी पूजन कर फूलों से सजाया। पर्वतीय अंचलों में ऋतुओं के अनुसार पर्व मनाए जाते हैं। ये पर्व जहां हमारी संस्कृति को उजागर करते हैं, वहीं पहाड़ों की परंपराओं को भी कायम रखे हुए हैं। इन्हीं में शामिल फूलदेई पर्व। वसंत ऋतु के आगमन की खुशी में चैत्र मास की संक्रांति पर आज उल्लास के साथ मनाया जा रहा है। यह उत्तराखंड का प्रमुख बाल पर्व है। फूलों का यह पर्व कहीं पूरे चैत्र मास तक चलता है तो कहीं आठ दिनों तक।
यह है धार्मिक महत्ता
इस पर्व के बारे में मान्यता है कि फ्योंली एक वनकन्या थी, जो जंगल मे रहती थी। एक दिन एक राजकुमार उस जंगल में आया। उसे फ्योंली से प्यार हुआ और वो उसे शादी करके अपने देश ले गया। फ्योंली को ससुराल में मायके और जंगल के मित्रों की याद आती है, लेकिन फ्योंली कि सास उसे मायके नहीं जाने देती। फ्योंली मायके की याद में तड़पकर एक दिन मर जाती है। उसके ससुराल वाले राजकुमारी को उसके मायके के पास ही दफना देते हैं। जिस जगह पर राजकुमारी को दफनाया गया था वहां पर कुछ दिन बाद ही पीले रंग का एक सुंदर फूल खिलता है जिसे फ्योंली नाम दिया जाता है।
इस तरह मनाते हैं फूलदेई
फूलदेई के दिन छोटे-छोटे बच्चे सुबह ही उठकर फ्योंली, बुरांस, बसिंग आदि जंगली फूलों के अलावा आड़ू, खुमानी, पुलम, सरसों के फूलों को चुनकर लाते हैं। थाली अथवा रिंगाल से बनी टोकरी में चावल व इन फूलों को सजाकर बच्चों की टोली घर-घर तक पहुंचती है। पर्व के मौके पर बच्चे लोकगीत गाकर सुख-शांति की कामना करते हैं। इसके बदले में परिवार के सदस्यों द्वारा उन्हें चावल, गुड़ व पैसे दिए जाते हैं। https://sarthakpahal.com/