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लोहारीगांव की सुनहरी यादों को डूबता देख डबडबाई आंखें

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देहरादून। यमुना की तहलटी में बसे करीब 70 परिवार का लोहारीगांव में डूबने से पहले चारों तरफ हरियाली ही हरियाली थी। खेतों में धान की फलस लहलहा रही थी, मगर सब कुछ इतनी जल्दी हो गया कि समेटने का मौका तक नहीं मिला। गांव छोड़ने के बावजूद ग्रामीण झील के किनारे बैठकर उन सुनहरे पलों को याद करते रहे, जो उन्होंने गांव के आंगन, घर व खेत-खलिहानों में बिताए होंगे। बुजुर्गों के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे हैं।

जिस लोहारीगांव में उनकी कई पीढ़ियां पली-बढ़ी हों, उससे बिछुड़ने की पीड़ा उनकी आंखों से लुढ़कते आंसू बयां नहीं कर पा रहे हैं। बिस्सू के दिन एक कोने में उदास पड़ा ढोल-दमौं और सूने पड़े चूल्हे, मस्तिष्क में अब भी रह-हर कर उन लोगों के मासूम सवाल कौंध रहे थे, जो ‘विकास’ के लिए पलक झपकते ही बेघर कर दिए गए। गांव के चौक (पंचायती आंगन) में रात-रात भर मंडाण लगते थे। इस बार सब तरफ मातम सा पसरा है। सभी ने बच्चों को रिश्तेदारों के यहां भेज दिया है। मवेशी भी इधर-उधर भिजवाए गए हैं।

लोहारीगांव के लोगों का आरोप है विस्थापन से पूर्व सरकार को एक अलग गांव बसाना चाहिए था, मजबूरन लोगों को आनन-फानन में अपना सामान खुले आसमान के नीचे रखने को मजबूर होना पड़ा। 1777.30 करोड़ की यह परियोजना धरातल पर उतर गई, मगर लोहारी का दर्द किसी ने नहीं समझा। गुमानी देवी का कहना है 48 घंटे का नोटिस थमाकर हमसे गांव खाली करवाना सही नहीं था। कम से कम हमें बिस्सू पर्व तो मना लेने देते।

पानी से जीवन के लहलहाने की उम्मीद रहती है। यहां ‘पानी’ देख इस गांव के लोगों के ‘चेहरे का पानी’ उतर गया। अब सिर्फ पानी है, हर ओर पानी। जहां लोगों के घर, खेत-खलिहान, देवी-देवताओं के ठौर और निशाण थे, वहां अब सिर्फ पानी है। और तो और, लोगों की आंखों में भी इन दिनों सिर्फ पानी ही है। अकाल के बाद पानी से उम्मीद होती है, मगर लोहारी में नाउम्मीदी का पानी है। पानी जड़ों को मजबूती देता है, लेकिन लोहारी में पानी ने उन्हें हमेशा के लिए जड़ों से उखाड़ दिया है।

120 मेगावाट की व्यासी और 300 मेगावाट की लखवाड़ परियोजना 1972 में प्रस्तावित हुई थी। पहले यूपी के सिंचाई विभाग ने इस पर काम शुरू किया था। 1992 में परियोजना बंद हो गई। दशकों बाद कुछ साल पहले इसे फिर मंजूरी मिली और काम शुरू हुआ। अब उत्तराखंड जल विद्युत निगम इस पर काम कर रहा है। ग्रामीणों को मार्च में 30 अप्रैल तक घर खाली कराने को कहा गया था, फिर अचानक 4 अप्रैल को 48 घंटे के भीतर गांव खाली करने का अल्टीमेटम दे दिया गया।

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