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संस्कारविहीन होती हमारी नई पीढ़ी

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देहरादून। सरोकार, संवेदना मानव जीवन की पहली शर्त है, पर दुर्भाग्य ही है कि आज हम संवेदना शून्य होते जा रहे हैं। समाज ही नहीं घर, कुटुम्ब से भी कटते जा रहे हैं। संस्कृति से लगभग कट ही गए हैं, संस्कार, सरोकार भी तज रहे हैं। हालत यह है कि आज मां-बाप से भी दूर होने लगे हैं। जिन्होंने हमें जना, सालों ढोया, वही आज हमें बोझ लगने लगे हैं। हद तो यह हो गई है कि उन्हें आज घर की चहारदीवारी तक से बाहर कर वृद्धाश्रमों के हवाले किया जा रहा है। यह हमारी पतित होती पीढ़ी का प्रतीक है।

दरअसल हम वो संस्कार उन्हें नहीं दे पाये हैं, जो होश संभालते ही हमें हमारे बड़े-बुजुर्गों ने हमें दिए थे। उन्होंने हमें मां-बाप की कद्र करना सिखाया। कुछ बड़े हुए तो मातृ देवो भव, पितृ देवो भव का मंत्र कानों में फूंका करते थे। कभी बोध कथाओं के जरिए तो कभी प्रेरक कहानियों के द्वारा हमें परिस्कृत करते थे। यह संस्कार हमें दूध में घुट्टी की तरह घोटकर पिलाया करते थे कि सच्चे मायने में ईश्वर माता-पिता ही हैं। ईश कृपा पानी है तो पहले माता-पिता को खुश रखना होगा।

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