के.एस. रावत। पहाड़ के मर्म को लेकर एक कहावत खूब प्रचलित है कि यहां का पानी और जवानी यहां के काम नहीं आती। साधनों को तरसते पहाड़ की आज भी यही सच्चाई है। उत्तराखंड में नदी की घाटियों के इलाके को छोड़ दें तो बाकी का पूूरा पहाड़ आज भी प्यासा ही है। प्यासे तो वो गांव भी हैं, जो नदियों के दोनों ऊपर बसे हैं। वहां इन नदियों का पानी नहीं पहहुंच पाया। लोग नीचे से ही पानी भरकरकाम चला लेते हैं। पर इस प्रदेश का दुर्भाग्य यह है राज्य बन जाने दो दशक बाद यहां जलापूर्ति की कोई मुकम्मल व्यवस्था नहीं बन पाई है। नतीजतनन पहाड़ में सिंचाई व पशुपालन तो कमोवेश दम तोड़ हीी गया है, अब पीने को पानी भी मयस्सर न होने से पलायन तक की मजबूूरी आन खड़ी हुई है।
बूंद-बूंद के लिए यह मशक्कत सिर्फ गांवों की पीड़ा नहीं, बल्कि कस्बों, शहरों से लेकर जिला मुख्यालयों तक की पीड़ा है। पानी का अकूत भंडार होने के बावजूद पहाड़ का प्यासा रहना दुर्भाग्यपूर्ण ही नहीं, बल्कि शर्मनाक भी है। पानी के लिए यहां आज तक अरबों रुपया बहाया जा चुका है, लेकिन पानी का रोना आज भी वहीं का वहीं है।
सच्चाई यह है कि जो काम हो भी रहा है वह पानी की किल्लत दूर करने के लिए कम, बल्कि जेबें भरने के लिए ज्यादा हो रहा है। पिछले 20 साल की अवधि इसका बड़ा गवाह है कि यहां योजनाओं व निर्माण कार्यों केे नाम पर सिर्फ पैसे की बंदरबांट होती रही है। बाकी इसके लिए न कोई जिम्मेदारी है और न जवाबदेही। लोग सालों से पानी की प्रतीक्षा में हैं, मगर उन्हें यह कोई बताने वाला नहीं कि वहां पानी कब तक पहुंचेगा। यह हाल गढ़वाल, कुमाऊं के हर इलाके का है।