देहरादून। उत्तराखंड राज्य बने 21 साल हो चुके हैं। प्रदेश में पलायन एक बड़ी समस्या के रूप में उभर रहा है। उत्तराखंड के वीरान होते इन गांवों को जिसने एक बार छोड़ा, दोबारा गांव की मुड़कर देखने को कदम नहीं बढ़ाए। पौड़ी और अल्मोड़ा की जनसंख्या में आई गिरावट सीधे-सीधे पलायन की ओर संकेत कर रही है। पलायन की मार झेलने के बाद भी किसी भी सरकार ने इस ज्वलंत समस्या की ओर शोध नहीं किया है कि आखिर क्यों गांव के गांव वीरान होते जा रहे हैं। पलायन की रोकथाम के लिए गांवों में मूलभूत सुविधाओं का विकास और शिक्षा व रोजगार के अवसरों पर ध्यान केंद्रित करना बहुत जरूरी है।
पहाड़ के घरों में लटकते ताले और गांव में दूर-दूर तक छाई वीरानी ये बताने के लिए काफी है कि किस तरह से उत्तराखंड के गांव के गांव पलायन की समस्या के कारण पूरी तरह खाली होते जा रहे हैं। शासन, प्रशासन और जनप्रतिनिधियों द्वारा यदि अभी भी इस ओर ध्यान नहीं दिया गया तो ये पहाड़ की ये खूबसूरती वीरान हो जाएगी। एक रिपोर्ट के अध्ययन से पता चलता है कि वीरान हुए गांवों की स्थिति क्या है। पौड़ी- 517, अल्मोड़ा- 162, बागेश्वर- 147, टिहरी- 146, हरिद्वार- 122, चम्पावत- 109, चमोली- 106, पिथौरागढ़- 98, रुद्रप्रयाग- 93, उत्तरकाशी- 83, नैनीताल- 66, ऊधमसिंहनगर- 33, देहरादून- 27 गांव अब तक खाली हो चुके हैं, जहां ताला लटके हैं।
सीमांत प्रदेश के लिए ठीक नहीं पलायन
ज्ञानार्जन और तीर्थाटन के लिए तो पलायन ठीक कहा जा सकता है, लेकिन चीन और नेपाल की सीमा से सटे उत्तराखंड के गांवों में स्थिति यह हो चली कि एक बार जिसके कदम गांव से बाहर निकले तो फिर उसने वापस मुड़कर नहीं देखा। परिणामस्वरूप गांव खाली होते चले गए, जिसे इस सीमांत प्रदेश के लिए किसी भी दशा में उचित नहीं ठहराया जा सकता।