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कठिन तपस्या के बाद बनते हैं नागा साधु, खुद करते हैं अपना अंतिम संस्कार, गजब है इनकी कहानी

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केएस रावत। दुनिया का सबसे बड़ा मानव समागम ‘महाकुंभ’ यूपी के प्रयागराज में शुरू हो रहा है. इस बार के कुंभ में 40 करोड़ से ज्यादा लोगों के जुटने की संभावना है, जिसके लिए सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए गए हैं. श्रद्धालुओं के साथ-साथ कुंभ में लाखों की संख्या में साधु-संत पहुंचते हैं और उनके लिए भी खास तैयारी की जाती है. लेकिन हर बार कुंभ में जुटने वाले नागा साधु कौतुहल का विषय बने रहते हैं. नागा साधुओं के बिना कुंभ की कल्पना तक नहीं की जा सकती. हम आपको बताते हैं कि कोई संन्यासी कैसे नागा साधु या साध्वी बनते हैं और कब से ये परंपरा चली आ रही है.

कुंभ में नागा साधुओं की धमक


कुंभ के दौरान विभिन्न अखाड़ों में नागा साधुओं का अमृत स्नान होता है. यहां महिला नागा साधु भगवा वस्त्र पहनकर रहती हैं, वहीं नागा साध्वी कभी सार्वजनिक रूप से निवस्त्र नहीं रहती हैं. नागा साधु जैसे लंबे बाल रखते हैं, वहीं नागा साध्वी मुंडन कराकर रहती हैं और पूरी तरह से ब्रह्मचर्य का पालन करती है. देश-विदेश से आई हुई साध्वियों का जमावड़ा भी कुंभ में लगा हुआ है.

कब से शुरू हुई नागा परंपरा
कुंभ में जूना अखाड़ा के थानापति घनानंद गिरी बताते हैं कि जिनको संत समाज और शंकराचार्य की ओर से नागा की उपाधि मिल जाती है, उन्हीं को नागा रहने की अनुमति दी जाती है. मतलब जो नागा दिगंबर हैं वह समय आने पर धर्म के प्रचार को आगे आते हैं लेकिन जो श्री दिगंबर हैं वह हर समय ही दिगंबर रहते हैं.  नागा साधुओं का एक योद्धा रूप के रूप में जिक्र किताबों में भले ही कम मिलता हो लेकिन इतिहास गवाह है कि जब-जब धर्म को बचाने की अंतिम कोशिशें बेकार होती दिखी हैं, तब-तब नागा साधुओं ने धर्म की रक्षा के लिए ना सिर्फ हथियार उठाए हैं बल्कि जान देकर या जान लेकर धर्म की रक्षा की है. नागा साधुओं ने अपने समय में सनातन को बचाने के लिए बड़े-बड़े युद्ध भी किए हैं.

धार्मिक इतिहास के ग्रंथों में इस बात का जिक्र मिलता है कि आठवीं शताब्दी में जब सनातन धर्म की मान्यताओं और मंदिरों को लगातार खंडित किया जा रहा था तब आदि गुरु शंकराचार्य ने चार मठों की स्थापना की. उस समय ही आदि गुरु शंकराचार्य को जरूरत महसूस हुई कि सनातन परंपराओं की रक्षा के लिए सिर्फ शास्त्र ही काफी नहीं हैं, शस्त्र भी जरूरी है. तब उन्होंने अखाड़ा परंपरा शुरू की जिसमें धर्म की रक्षा के लिए मर-मिटने वाले संन्यासियों ने प्रशिक्षण लेना शुरू किया, नागा साधु उन्हीं अखाड़ों के धर्म रक्षक माने जाते हैं.

धर्म रक्षक कहे जाते हैं नागा साधु


धर्म रक्षा के मार्ग पर चलने के लिए ही नागा साधुओं ने अपने जीवन को इतना कठिन बना लिया है ताकि विपरीक्ष परिस्थितियों का सामना कर चुनौतियों से निपटा जा सके. क्योंकि जब कोई अपने जीवन में संघर्ष नहीं करेगा तो वह धर्म की रक्षा कैसे कर पाएगा. कहा यह भी जाता है कि जब 18वीं शताब्दी में अफगान लुटेरा अहमद शाह अब्दाली भारत विजय के लिए निकला तो उसकी बर्बरता से इतना खून बहा कि आजतक इतिहास के पन्नों में अब्दाली का जिक्र दरिंदे की तरह किया जाता है. उसने जब गोकुल और वृंदावन जैसी आध्यात्मिक नगरी पर कब्जा करके दरिंदगी शुरू की तब राजाओं के पास भी वो शक्ति नहीं थी जो उससे टकरा पाते. लेकिन ऐसे में हिमालय की कंदराओं से निकली नागा साधुओं ने ही अब्दाली की सेना को ललकारा था.

शरीर पर लपेट लेते हैं चिता की राख
दरअसल नागा दीक्षा के दौरान दो तरह के नागा साधु तैयार होते हैं. एक दिगंबर नागा साधु, दूसरे श्री दिगंबर नागा साधु. दिगंबर नागा साधु एक लंगोट धारण करने के अलावा और कोई कपड़ा नहीं पहनते जबकि श्री दिगंबर की दीक्षा लेने वाले साधु पूरी तरह निर्वस्त्र रहते हैं. सबसे मुश्किल श्री दिगंबर नागा साधु बनना ही होता है क्योंकि तब संयम और ब्रह्मचर्य पर सदैव डटे रहने के लिए उनकी सभी इंद्रिया नष्ट कर दी जाती हैं. निर्वस्त्र रहने वाले साधु पूरे शरीर पर राख को मलकर रखते हैं,

कुंभ के दौरान भी नागा साधु बनाए जाते हैं. प्रयागराज के कुंभ में नागा साधु बनने वाले को नागा, उज्जैन में बनने वाले को खूनी नागा, हरिद्वार में बनने वाले को बर्फानी नागा और नासिक में बनने वाले को खिचड़िया नागा कहा जाता है. नागा अखाड़ों के आश्रम और मंदिरों में रहते हैं. साथ ही कुछ नागा साधु पहाड़ गुफाओं में जीवन बिताते हैं. अखाड़े के आदेश से ये साधु पैदल भ्रमण करते हैं. इसी दौरान झोपड़ी बनाकर धूनी भी रमाते हैं.

खुद करते हैं अपना अंतिम संस्कर
कुंभ में हरिद्वार से आए नागा साधु मणिराज पुरी ने बताया कि उन्होंने 13 साल की उम्र में घर छोड़ दिया और फिर उत्तराखंड के पहाड़ों में रहने लगे. नागा साधु मणिराज पुरी ने बताया कि नागा बनना आसान नहीं होता. अपने शरीर का अंतिम संस्कार और पिंडदान करने के बाद संन्यास की दीक्षा ली जाती है. कई प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद आखिरी लिंग तोड़ प्रक्रिया सबसे अहम होती है जिसमें अपने काम को वश में करने के लिए लिंग तोड़ दिया जाता है. लेकिन यह प्रक्रिया क्या होती है यह नागा साधु ने बताने से इनकार कर दिया. उनका कहना है कि यह एक गुप्त प्रक्रिया है जिसे सार्वजनिक तौर पर नहीं बताया जा सकता.

कुंभ में सबसे पहले स्नान करते हैं नागा साधु
कुंभ में अमृत स्नान की शुरुआत भी सभी अखाड़ों के नागा साधुओ से ही होती है. नागा साधु घोर तप से जीवन में सब कुछ त्याग चुके होते हैं और ऐसे में वे सबसे पवित्र माने जाते हैं. नागा साधुओं के स्नान के बाद ही अन्य साधु और श्रद्धालु कुंभ स्नान करते हैं. कुंभ के समाप्त होने के बाद नागा साधु वहां की पावन मिट्टी को शरीर पर लपेटकर वापस अपने आश्रम या एकांतवास में चले जात हैं. इसके बाद फिर से अगले कुंभ के दौरान संत समागम में शामिल होने के लिए आते हैं.

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