
केएस रावत। उत्तराखंड की राजधानी देहरादून की सड़कों में इस दिनों एक छोटा सा लाल रंग का फल खूब बिक रहा है. जिसका नाम है काफल (Kafal) पहाड़ों से आने वाले लोग इस फल को अच्छी तरह जानते हैं क्योंकि इसकी पैदावार मुख्यतः पहाड़ों में ही होती है. देहरादून में यह फल आराघर चौक के पास 400 से 600 रुपये प्रति किलो के हिसाब से बेचा जाता है. जितना ये फल फेमस है उतनी ही फेमस है इस फल से जुड़ी एक मार्मिक लोककथा.
पहाड़ी लोककथा, मां-बेटी और काफल
पहाड़ों में काफल बड़े शौक से खाया जाता है. एक कहानी जो इस फल से जुड़ी है. कहानी में एक गरीब महिला और उसकी छोटी बेटी अकेले गांव में रहती थीं. महिला खेती करती थी और अपनी बेटी का पालन-पोषण करती थी. गर्मियों में वह काफल तोड़कर बाजार में बेचती थी ताकि घर का खर्च चल सके. एक बार जब महिला जंगल से काफल तोड़कर वापस आई, तो उसकी बेटी काफल खाने के लिए उत्सुक थी. मां ने कहा कि वह पहले खेत का काम खत्म कर वापस आएगी और फिर दोनों मिलकर काफल खाएंगे. छोटी बेटी मन ही मन लालच कर रही थी, लेकिन उसने मां का इंतजार करना ही बेहतर समझा.
दुखद घटना और उसके बाद की कहानी
जब महिला खेत से काम करके वापस लौटी, तो उसने देखा कि काफल बहुत कम बचा है. उसे लगा कि बेटी ने बिना अनुमति के काफल खा लिए हैं. धूप-गर्मी से थकी महिला ने गुस्से में आकर बेटी से पूछा कि उसने ऐसा क्यों किया. बेटी ने बताया कि वह काफल के लिए बहुत भूखी थी, लेकिन उसने मां का इंतजार किया. गुस्से में मां ने बेटी को थप्पड़ मारा, जिससे बेटी गिरते ही मर गई. बाद में जब मां का गुस्सा उतरा तो उसने देखा कि उसकी प्यारी बेटी इस दुनिया में नहीं रही. उस रात मां बहुत रोई। सुबह होने पर मां ने देखा कि मुरझाए हुए काफल नमी पाकर खिल उठे थे. उसे समझ आया कि उसकी बेटी सच कह रही थी, काफल सच में धूप से सिकुड़ गए थे. जिसके बाद उस बच्ची की मां इतनी दुख हुई कि वह भी दुनिया से चल बसी.
पहाड़ में आज भी गूंजता है ‘काफल पाको मै नी चाखो’
दुनिया से जाने के बाद उस लड़की के प्राण पक्षी में आ गए. लोगों का मानना है कि जब भी काफल पकते हैं, तो एक पक्षी ‘काफल पाको मै नी चाखो’ गीत गाता है. इसका मतलब है, ‘काफल पका है लेकिन मैंने नहीं चखा है.’ यह कहानी आज भी पहाड़ों में बुजुर्ग बच्चों को सुनाते हैं, ताकि वे इस मार्मिक कथा को याद रखें.