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देवी-देवता कैसे प्रकट होते हैं मंडाण में, मंडाण के बारे में और कुछ जानिए, देखिये VIDEO

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केएस रावत। हिमालय में गोद बसा एक छोटा सा राज्य हरी भरी ऊंची पहाड़ियों से घिरा हुआ जहां की पवित्र नदियां दुनियाभर में प्रसिद्ध हैं, उत्तराखंड नाम से जाना जाता है। हमारे उत्तराखंड को देवों की भूमि देवभूमि भी कहा जाता है। कहते हैं कि प्राचीन काल से ही यहां पर तैतीस कऱोड़ देवी देवताओं का वास है। यहां चार धाम केदारनाथ, बदरीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री हैं। इसके अलावा सिखों का पवित्र गुरुद्वारा श्रीहेमकुंड साहिब, जिसे उत्तराखंड का पांचवां धाम भी कहा जाता है।

जागर शब्द का शाब्दिक अर्थ है जागृत करना। जिसका अभिप्राय अपने इष्ट देव, पित्र देवों का आह्वान करना होता है। मान्यतानुसार उत्तराखंड के देवी-देवताओं को सुमिरन (याद) करने पर वो किसी पर प्रकट होकर अपनी इच्छा, वेदना, उपाय अपने ग्रामवासियों, परिजनों को सुनाते हैं तथा उन्हें शुभाशीष देते हैं।

हमारे घरों में देवी देवताओं के दो रूप होते हैं। एक करुण और दूसरे निष्ठुर। करुण देवता बिना पूजा के नहीं रहते, किंतु निष्ठुर स्वभावी देवता अगर पूजे नहीं गये तो क्रोधित हो जाते हैं और उनका आक्रोश समस्त पुश्त पर हावी होता है।

बिथ्याणी गांव में आज खास मौके पर एक मंडाण का आयोजन किया गया। दिखाए जा रहे वीडियो उसी मंडाण के हैं। जागर की परंपरागत दो शैली होती है। एक भीतर गायन और दूसरी मंडाण की शैली होती है। भीतर गायन शैली कमरे के अंदर होती है, जबकि मंडाण खुले मैदान में होता है।

आज उत्तराखंड में जागरी विद्या का धीरे-धीरे पतन हो रहा है, इसका प्रमुख कारण वर्तमान पीढ़ी जो बाहर बस गयी है वो विद्या तो छोड़िए अपनी पहाड़ी भाषा को दूर-दूर तक नहीं जानती। इसका कारण पहाड़ों से हो रहा लगातार पलायन भी है।

जागर एक भावना है। जागर में विविधता हमारी सोचने की क्षमता से भी ऊपर है। उत्तरकाशी में गुरु कैलापीर के जागर का वर्णन है जो कश्मीरी से नाता रखते थे। कश्मीर में गुरु के होने का उल्लेख हमारे गढ़वाल के जागरों में मिलता है। इसी प्रकार जागरों में सुमाड़ी (पौड़ी गढ़वाल) के पंथ्या दादा व मलेथा (टिहरी गढ़वाल) के माधो सिंह भंडारी का भी वर्णन आता है, जिसमें एक ने पशुबलि व दूसरे ने अपने गांव में पानी लाने के लिए देवताओं को स्वयं की बलि अर्पण कर दी थी। https://sarthakpahal.com/

आपको यह जानकारी हैरानी होगी कि अमेरिकी शोधकर्ता स्टीफन फ्योल उर्फ फ्योंलीदास ने पहाड़ी जागरों व लोकगीत पर 10-12 साल तक शोध किया है। उन्होंने लिखा कि पहाड़ी लोकगीत, जागरों का जो प्राचीनतम रूप है, उसमें दैव्य शक्तियों का होने का आभास है।

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