
देहरादून। मजे की बात यह है कि जीरा, धनिया, मेथी आदि दूसरे मसालों की तरह जखिया की भी कोई खेती नहीं की जाती है। यह पहाड़ और पहाड़ के बाशिंदों के लिए प्रकृति का अनुपम उपहार है। चूंकि राजस्थान, गुजरात की जलवायु में उगने वाला जीरा यातायात के साधनों के अभाव में आज से आधी सदी पहले तक पहाड़ के खानपान का हिस्सा नहीं रहा होगा तो पहाड़ के व्यंजनों को लजीज बनाने का काम जखिया ही करता रहा होगा। जीरे से भी बढ़कर इसमें एक और विशेषता है।
पहाड़ों से हो रहे निरंतर पलायन के कारण इसका संग्रहण करने वालों की तादाद में लगातार कमी आ रही है। पहले पहाड़ों में बड़ी संख्या में लोग खेती करते थे तो सीजन पर वे जखिया भी इकट्ठा कर लेते थे, लेकिन अब खेती करने वाले ही नहीं बचे तो जखिया कहां से मिले। यही कारण है कि उन शहरों में जहां पहाड़ियों की संख्या ठीकठाक है, वहां ये काफी महंगे दामों पर बिकता है। उत्तराखंड से शेफ की नौकरी करने गए युवाओं ने इसे विदेश में भी लोकप्रिय कर डाला है। विदेश में कई रेस्टोरेंट ने जखिया राइस को अपने इंडियन कुजिन सेक्शन में प्रमुखता से दर्ज किया हुआ है।